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वह जीतती है – जातीय आधार पर विभाजित समाजों में महिलाओं का चुनाव

भारतीय संविधान के अनुसार ग्रामीण स्थानीय सरकारों में महिलाओं के लिए कम से कम 33% सीटें आरक्षित हैं, और बिहार उन नौ राज्यों में से है जिन्होंने 50% आरक्षण का विकल्प चुना है। हालांकि, राज्य और केंद्र स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। यह लेख पता लगाता है कि बिहार में राज्य-स्तरीय चुनावों को आकार देने के लिए लैंगिक स्थिति (स्त्री-पुरुष) का किस प्रकार से जाति, राजनीतिक अभियानों और भेदभाव के अनुभवों के साथ परस्पर-प्रभाव है।

 

महिलाएं अब पहले से कहीं ज्यादा चुनावो में भाग ले रही हैं। भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार, महिला मतदाताओं का प्रतिशत 2014 में 47% था जो 20191 में बढ़कर में 48.1% हो गया है। इस अवधि में 435 लाख नए मतदाताओं के पंजीकरण के साथ, मतदाता नामांकन में हुई इस कुल वृद्धि में से आधी संख्या में महिला मतदाताओं का नामांकन हुआ है। महिला मतदान में बढ़ता रुझान विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों (रॉय और सोपारीवाला 2019) में देखा गया है। लेकिन क्या महिलाओं द्वारा बढ़ा हुआ यह मतदान राजनीतिक क्षेत्र में उनके लिए एक मजबूत आवाज के रूप में तब्दील होता है?

 

भारत भर में पंचायती राज संस्थाओं2 में 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, और बिहार राज्य में 50% से भी अधिक आरक्षण के मद्देनजर, स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीतिक प्रभाव के बारे में आशावादी होना लाज़मी है। लेकिन सरकार के उच्च स्तरों पर यह स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जब विधायी सदनों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात आती है तो वर्ल्ड जेंडर गैप रिपोर्ट (2021) के अनुसार भारत का क्रम नीचे से 28वें स्थान पर है। वर्तमान लोकसभा में महिला सांसदों (संसद सदस्यों) का अनुपात केवल 14.6% है।

 

इस प्रकार, महिलाओं की बढ़ी हुई राजनीतिक प्रतिभागिता के आंकड़ों को इस तथ्य से भी देखना चाहिए कि महिलाओं को सत्ता के गलियारे में बहुत ही कम प्रतिनिधित्व मिलता है। जैसे-जैसे नीति समूह सार्वजनिक कार्यालय में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व के लिए दबाव डालते हैं, यह प्रश्न महत्वपूर्ण बन जाता है कि क्या सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां महिलाओं के निर्वाचित होने के लिए अनुकूल हैं। इसलिए, हमें उन कारकों को बड़ी सूक्ष्मता से समझने की आवश्यकता है जो भारत जैसे जातीय रूप से विविध समाजों में महिला उम्मीदवारों की राजनीतिक सफलता को आकार देते हैं।

बिहार में महिला उम्मीदवारों की राजनीतिक सफलता का आकलन

हाल ही में आईजीसी प्रोजैक्ट (बनर्जी और अन्य 2021) के एक भाग के रूप में, हमारा लक्ष्य उन प्रमुख कारकों की पहचान करना है जो राज्य स्तर पर महिला उम्मीदवारों की राजनीतिक सफलता को प्रभावित करते हैं। हम बिहार को एक परीक्षण के रूप में इसलिए चुनते हैं कि यह भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और सबसे गरीब राज्यों में से एक है, जिसमें जाति- और लिंग-आधारित पूर्वाग्रह और हिंसा दोनों का लंबा इतिहास रहा है। इसलिए, वहां महिलाओं की राजनीतिक सफलता को आकार देने वाली स्थितियां इस संदर्भ में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई दे सकती हैं। इसके अलावा, हम इस बात की भी जांच करना चाहते हैं कि राज्य सरकार ने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए जो प्रगतिशील पहल की है, उसके परिणामस्वरूप राजनीतिक क्षेत्र3 में लैंगिक असमानताओं में कमी आई है या नहीं। हमने नवंबर और दिसंबर 2020 के दौरान बिहार4 के चार जिलों में एक सर्वेक्षण प्रयोग किया। तुलना के लिए, हमने जाति और सांप्रदायिक हिंसा के इतिहास वाले विधानसभा क्षेत्रों से और साथ ही उन निर्वाचन क्षेत्रों5 से भी उत्तरदाताओं का नमूना लिया जो बहुत कम अस्थिर थे। कुल मिलाकर, हमने मतदाता सूची से यादृच्छिक रूप से चुने गए कुल 2,000 उत्तरदाताओं का सर्वेक्षण किया, इनमें हमारे चार जिलों में से प्रत्येक में दो विधान सभा क्षेत्रों से 250 लोगों का चयन किया गया। हमने उत्तरदाताओं से लिंग, जाति/धर्म सामान्य जाति, ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग), एससी (अनुसूचित जाति) और मुस्लिम, तथा अभियान अपील (हिंसा से सुरक्षा बनाम विकास से संबंधित सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का प्रावधान) के आधार पर यादृच्छिक रूप से चुने गए अज्ञात काल्पनिक उम्मीदवार प्रोफाइल के चार जोड़े में से एक विधायक (विधान सभा के सदस्य) उम्मीदवार के लिए अपनी पसंदीदा प्रोफ़ाइल का चयन करने के लिए कहा। हमने पार्टी संबद्धता – राष्ट्रीय जनता दल (राजद) या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भी चार उम्मीदवारों में से दो जोड़े में शामिल किया। उदाहरण के लिए, एक उत्तरदाता को सार्वजनिक सेवाओं का वादा करने वाली एवं राजद का प्रतिनिधित्व करने वाली अनुसूचित जाति की एक महिला और सुरक्षा का वादा करने वाले एवं भाजपा का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ओबीसी पुरुष के बीच चयन करने के लिए कहा जा सकता है। सर्वेक्षण के दौरान, हमने उत्तरदाताओं से व्यक्तिगत और घरेलू स्तर के प्रश्नों का एक संच भी पूछा। इसके अलावा, हमने महिला पंचायत नेताओं और जीविका6 पदाधिकारियों सहित ग्रामीण स्तर के राजनीतिक और विकास कार्यकर्ताओं के 50 से अधिक गुणात्मक साक्षात्कार लिए। हमने अपने अध्ययन में उन परिस्थितियों का आकलन करने के लिए कई प्रश्न उठाए जिनके तहत महिला उम्मीदवार बिहार में कोई पद जीतने में सक्षम होंगी। हमारे शोध डिजाइन से हम वास्तविक उम्मीदवारों की किसी भी अन्य विशिष्ट विशेषताओं की किसी बाधा से परे एक व्यापक निष्कर्ष निकाल सकते हैं। हमारे द्वारा पूछे गए प्रमुख प्रश्न हैं:
  • क्या मतदाता, महिला प्रतिनिधियों द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण के बजाय सांप्रदायिक और जातिगत हिंसा से सुरक्षा का वादा करने पर दंडित करते हैं? व्यक्तिगत रूप से और अस्थिर जिलों में रहने से जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव का जोखिम, इन अपीलों और उम्मीदवारों की लैंगिक स्थिति (स्त्री/पुरुष) के बारे में मतदाताओं की धारणा किस प्रकार से बनती है?

  • मतदाताओं के जरिये सफलता प्राप्त करने के लिए उम्मीदवारों की जाति या धार्मिक पृष्ठभूमि उनकी लैंगिक स्थिति (स्त्री/पुरुष) के सन्दर्भ में क्या प्रभाव रखती है?

  • ऐसे नागरिक जिनका स्थानीय स्तर पर प्रतिनिधित्व महिलायें करती हैं, क्या वे हमारे द्वारा प्रस्तुत काल्पनिक विधायक उम्मीदवारों के जोड़े में से महिला को चुनने की अधिक संभावना रखते हैं?

  • क्या किसी महिला उम्मीदवार का किसी राजनीतिक दल से जुड़ाव उसके द्वारा किसी पद के जीतने की संभावना को प्रभावित करता है?

महिला उम्मीदवारों के सामने आ रही बाधाएं

हमारे अध्ययन से पता चलता है कि जहां कुछ संदर्भों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है, फिर भी उन्हें महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हम तालिका 1 में अपने परिणामों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं।

तालिका 1. मतदाता उपसमूह द्वारा लिंग (स्त्री/पुरुष) वरीयताएँ

उम्मीदवार की विशेषताएं

मतदाता उपसमूह

उम्मीदवार की वरीयता पर औसत प्रभाव*

लिंग

महिला

कुल मिलाकर

+

महिला

महिला

+

महिला

पुरुष

=

महिला

कम-हिंसा वाला जिला

+

महिला

अधिक हिंसा वाला जिला**

=

महिला

जाति-आधारित भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव

+

महिला

पंचायत, जहाँ की प्रधान महिला है

=

किसी पार्टी (भाजपा या राजद) से जुड़ी महिला

कुल मिलाकर

=

सुरक्षा संबंधी अभियान चला रही महिला

पुरुष

=

सुरक्षा संबंधी अभियान चला रही महिला

महिला

+

मुस्लिम महिला

कुल मिलाकर

-

सामान्य जाति की महिला

कुल मिलाकर

=

भाजपा*** से संबद्ध सामान्य जाति की महिला

कुल मिलाकर

-

जाति

सामान्य जाति (अनुसूचित जाति के सापेक्ष)

कुल मिलाकर

-

अनुसूचित जाति

अनुसूचित जाति के मतदाता

+

अनुसूचित जाति

अधिक हिंसा वाला जिला

+

अनुसूचित जाति- सुरक्षा संबंधी अभियान चला रहे

अनुसूचित जाति के मतदाता

+

धार्मिक पृष्ठभूमि

मुस्लिम

मुस्लिम

+

मुस्लिम

कुल मिलाकर

-

मुस्लिम- सुरक्षा संबंधी अभियान चला रहे

मुस्लिम

=

नोट: (i) *कुंजी: + (सकारात्मक प्रभाव), – (नकारात्मक प्रभाव), = (तटस्थ प्रभाव)। (ii) ** महिला विधायक के संपर्क में आने और जाति-आधारित भेदभाव के अनुभव के साथ, एक उम्मीदवार के महिला होने का प्रभाव सकारात्मक होता है। (iii) ***प्रभाव राजद से संबद्ध एक सामान्य जाति की महिला के सापेक्ष है।

सबसे पहले, हम पाते हैं कि कुल मिलाकर मतदाता, महिला उम्मीदवारों (लगभग 1.5%) और सार्वजनिक वस्तुओं की पेशकश करने वाले उम्मीदवारों (पर्याप्त 25% से अधिक) को पसंद करते हैं, और वे सामान्य जाति के उम्मीदवारों तथा सबसे आश्चर्यजनक रूप से मुसलमान उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए कम इच्छुक रहते हैं। इसके अलावा, मुस्लिम महिलाओं को मतदाता समर्थन में ‘दोहरे नुकसान’ का सामना करना पड़ता है, यह एक संकेतक है कि इसमें परस्पर-प्रभाव मौजूद हैं। मुस्लिम पुरुष उम्मीदवारों को गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों की तुलना में 11% नुकसान होता है, जबकि मुस्लिम महिलाओं को और 4% कम मतदाता समर्थन मिलता है।

 

हालांकि, परिणामों का विभाजन करने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि महिला मतदाता महिला उम्मीदवारों और हिंसा से सुरक्षा प्रदान करने वाले सभी उम्मीदवारों को पसंद करती हैं – और विशेष रूप से महिला उम्मीदवार को, जो सुरक्षा प्रदान करती हैं। इसके विपरीत, पुरुषों को अपने चयन में कोई लिंग-वरीयता नहीं होती है, और वे ऐसे उम्मीदवारों को पसंद करते हैं जो सार्वजनिक वस्तुओं की पेशकश करते हैं। इन परिणामों से संकेत मिलता है कि महिला मतदाता वास्तव में पुरुषों की तुलना में जातीय और व्यक्तिगत सुरक्षा खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील महसूस करती हैं, और वे मानती ​​है कि महिला नेता अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में इन खतरों को अधिक प्रभावी ढंग से समझ सकती हैं और कार्य कर सकती हैं।

 

इन परिणामों के आलोक में, यह तर्कसंगत लगता है कि मतदाताओं के मुस्लिम और अनुसूचित जाति जैसे अन्य हाशिए पर रहने वाले समूह सार्वजनिक वस्तुओं के बजाय सुरक्षा के वादों को प्राथमिकता देंगे। हालाँकि, हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन हाँ, एससी और मुस्लिम मतदाता अपने ही जाति/धार्मिक पहचान के उम्मीदवारों को उसी प्रकार पसंद करते हैं, जिस प्रकार से महिलाएं महिला उम्मीदवारों को पसंद करती हैं। यह प्रभाव मुस्लिम मतदाताओं में विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो मुस्लिम उम्मीदवारों को 30% का सीधा समर्थन देते हैं। जबकि एससी मतदाता सुरक्षा अपील करने वाले एससी उम्मीदवारों को अतिरिक्त बढ़ावा देते हैं, मुस्लिम मतदाताओं के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। फिर से, यह इंगित हो जाता है कि हाशिए के समूहों के सदस्य मतदाता अपने ही समूहों के सदस्यों को पद पर देखना चाहते हैं और इस प्रकार से, वे सामान्य तौर पर कम हाशिए वाले समुदायों के सदस्यों की तुलना में अधिक असुरक्षित महसूस करते हैं।

 

हमारी अगली श्रेणी के परिणाम इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि हिंसा और भेदभाव का अनुभव भारत में मतदान के व्यवहार में कैसे मध्यस्थता करता है। सबसे पहले, हम पाते हैं कि कम हिंसा वाले जिलों में लोग महिला उम्मीदवारों को चुनना पसंद करते हैं, जबकि अधिक हिंसा वाले जिलों में रहने वालों का झुकाव पुरुषों के प्रति अधिक होता है (या, यूँ कहे कि, महिलाओं के लिए उनकी प्राथमिकता गायब हो जाती है)। यह रूढ़िबद्ध तर्क के साथ संगत है कि आमतौर पर सुरक्षा प्रदान करने के दृष्टिकोण से पुरुषों को अधिक प्रभावी माना जाता है। पुरुष उम्मीदवारों के प्रति उनके अधिक उन्मुखीकरण के अलावा, अधिक हिंसा वाले जिलों में मतदाता अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को पसंद करते हैं, जबकि कम हिंसा वाले जिलों (जहां ओबीसी उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाती है) में ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि जाति-आधारित हिंसा मतदाताओं को अधिक हाशिए के समूह के प्रतिनिधि को पसंद करने के लिए प्रेरित करती है, हालांकि इस बारे में निश्चित प्रमाण के लिए और अधिक शोध आवश्यक है।

 

इस संदर्भ में, यह ध्यान देने योग्य है कि जाति-आधारित भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव लोगों द्वारा महिलाओं के लिए वोट करने की अधिक संभावना बनाता है (10% तक)। यह संभव है कि भेदभाव की रिपोर्ट करने वाले लोग सोचते हों कि महिला उम्मीदवार उनके लिए और अधिक करेंगी। बेशक, जैसा कि हमने अभी नोट किया है, अधिक हिंसा वाले जिलों में लोग महिलाओं को पसंद नहीं करते हैं, जो इस बात का संकेत हो सकता है कि हिंसा और भेदभाव के अलग-अलग प्रभाव हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि भेदभाव अक्सर एक दैनिक घटना होती है, जबकि हिंसा दुर्लभ होती है लेकिन उसकी अधिक आशंका भी होती है। लैंगिक रूढ़िवादिता मतदाताओं को यह मानने के लिए बाध्य कर सकती है कि महिला उम्मीदवारों के दैनिक भेदभाव को दूर करने की अधिक संभावना होगी लेकिन हिंसा का मुकाबला करने में वे कम ‘कठोर’ होंगी।

 

साथ ही, हम पाते हैं कि अधिक हिंसा वाले जिलों में भी, एक महिला विधायक द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने के अनुभव के साथ जातिगत भेदभाव का जोखिम अभी भी मतदाताओं को महिला उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए प्रेरित करता है। यह परिणाम बताता है कि भेदभाव के जोखिम के रहते महिला उम्मीदवारों के समर्थन पर हिंसक जिलों के नकारात्मक प्रभाव संभावित रूप से अन्य कारकों से कम असरदार हो सकते हैं, जिसमें महिला नेतृत्व के लिए अधिक जोखिम शामिल है।

 

हमारे गुणात्मक साक्षात्कारों में से कुछ प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि कई अभी भी महिलाओं को पंचायत प्रधान, विधायक या सांसद के पद से जुड़ी जिम्मेदारियों को निभाने में असमर्थ मानते हैं, क्योंकि ज्यादातर महिलाओं में व्यावाहारिक अनुभव की कमी होती है। अधिकांश उत्तरदाता इस बात से भी सहमत हैं कि जो महिलाएं अपने घरों से गांव के मामलों में संलग्न होने के लिए कदम उठाती हैं, उन्हें अक्सर अनैतिक होने के रूप में कलंकित किया जाता है, यही वजह है कि मतदाता अक्सर घरेलू, पारंपरिक छवि प्रदर्शित करने वाली महिला उम्मीदवारों को पसंद करते हैं।

 

कुछ उत्तरदाताओं ने व्यक्त किया कि यदि एक महिला उम्मीदवार को नामांकित या निर्वाचित किया जाता है, तो शासन तार्किक रूप से अधिक जटिल हो जाता है क्योंकि वह अपने परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर हो सकती है, और उसे घरेलू जिम्मेदारियां भी उठानी पड़ती हैं।

स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रभाव

हमें ‘आरक्षण प्रभाव’ की धारणा का समर्थन करने के लिए सबूत नहीं मिलते हैं, यानी पंचायत स्तर पर एक महिला प्रतिनिधि होने से राज्य स्तर पर एक महिला विधायक चुनने वाले मतदाताओं की संभावना में वृद्धि नहीं होती है। इसलिए, हमारे अध्ययन से पता चलता है कि, अल्पावधि में, ग्रामीण स्तर पर आरक्षण से सरकार के उच्च स्तर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व में मौजूदा लैंगिक अंतर को पाटने की उम्मीद नहीं है। हालांकि, जिन निर्वाचन क्षेत्रों में महिला विधायक चुनी गई हैं, जातिगत भेदभाव का अनुभव करने वाले मतदाता महिलाओं को विधायक के रूप में पसंद करते हैं, जिसका अर्थ है कि वे महिलाओं की एक विधायक के रूप में भूमिका में भरोसा करने लगे हैं और वे उन्हें अन्याय के मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील मानते हैं। इसके अलावा, पिछले शोध (ओ’कोनेल 2017) के निष्कर्षों को दर्शाते हुए, हमारे गुणात्मक साक्षात्कार से संकेत मिलता है कि पंचायत आरक्षण ने ग्रामीण स्तर पर महिला नेताओं के एक समूह के निर्माण में सहायता की है, जो उच्च स्तरों पर जिम्मेदारियों को लेने के लिए तैयार हैं। यह देखा जाना बाकी है कि क्या यह विकासशील दल भविष्य के राज्य विधान सभा चुनावों में लैंगिक गतिशीलता को बदलने में सफल हो पाता है।

राजनीतिक दलों की भूमिका

राजनीतिक दल भारत की चुनावी राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और बिहार कोई अपवाद नहीं है। हमारे अध्ययन में, हमने देखा कि राजनीतिक दल नामांकन और अभियान संसाधनों के आवंटन का फैसला करते समय केवल नाममात्र के लिए महिलाओं (या अन्य आरक्षित श्रेणियों के उम्मीदवारों के लिए) के आरक्षण पर विचार करते हैं। जमीनी स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ गहन साक्षात्कार से यह भी पता चलता है कि महिलाओं के लिए आरक्षित टिकटों की न्यूनतम संख्या के संबंध में बहुत कम पार्टियों की आंतरिक नीतियां होती हैं। कुल मिलाकर, बिहार से हमारे निष्कर्ष दर्शाते हैं कि प्रमुख दलों ने महिला उम्मीदवारों के केवल एक छोटे अनुपात को मैदान में उतारा, इस तथ्य के बावजूद कि हाल के राज्य विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया था।

 

महिलाओं की चुनावी सफलता (गोयल 2020, स्पारी 2020) को आकार देने में उनके महत्व को देखते हुए, राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को कैसे देखते हैं, स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण कारक है। हमारे शोध से पता चलता है कि जहां मतदाताओं की समग्र रूप से महिला उम्मीदवारों के बारे में सकारात्मक धारणा है, वहीं महिला उम्मीदवारों के लिए उनकी प्राथमिकता गायब हो जाती है जब ये उम्मीदवार किसी राजनीतिक दल से संबद्ध होते हैं। इसके अलावा, जब उम्मीदवारों को चुनने की बात आती है, तो पक्षपातपूर्ण निष्ठा लैंगिक स्थिति (स्त्री/पुरुष) पर हावी हो जाती है।

नीति निहितार्थ

हमारा अध्ययन महिला आरक्षण विधेयक, 2008 (जिसे 108वें संशोधन विधेयक के रूप में भी जाना जाता है) की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है, जो सरकार के उच्च स्तर पर राजनीति को महिलाओं के लिए और अधिक समावेशी बनाने के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की एक तिहाई सीटों को आरक्षित करने का प्रयास करता है। नीति को मुस्लिम महिला उम्मीदवारों द्वारा विशेष रूप से सामना किए जाने वाले उच्च स्तर के भेदभाव का भी संज्ञान लेना चाहिए।

 

कुल मिलाकर, हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि राज्य स्तर के उम्मीदवारों के रूप में महिलाओं के पास कई संभावित ताकतें हैं। उन्हें महिला मतदाताओं द्वारा और ऐसे मतदाताओं द्वारा पसंद किया जाता है जिन्होंने भेदभाव का अनुभव किया है, और खासकर तब, जब वे सुरक्षा का वादा करती हैं। फिर भी, हम पाते हैं कि पक्षपातपूर्ण निष्ठा लैंगिक वरीयताओं से अधिक है, जो इस धारणा का समर्थन करती है कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व में लैंगिक असमानताओं को कम करने के लिए पार्टियों को महिला उम्मीदवारों को नामांकित करने के साथ और भी अधिक कार्य करने की आवश्यकता है।

टिप्पणियाँ:
  1. भारत में 2014 और 2019 में आम चुनाव हुए थे।

  2. पंचायती राज ग्रामीण भारत में गांवों की स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था है। इसमें पंचायती राज संस्थाएं (पीआरआई) जैसे ग्राम पंचायत (ग्राम-स्तर), पंचायत समितियां (ब्लॉक स्तर), और जिला परिषद (जिला स्तर) शामिल हैं।

  3. उदाहरण के लिए, स्थानीय सरकार में महिलाओं के लिए सीटों का अनिवार्य 50% आरक्षण शुरू करने के अलावा, बिहार की राज्य सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए एक उपकरण के रूप में जीविका कार्यक्रम भी लागू किया है।

  4. चार जिले गया, जमुई, मधुबनी और सुपौल हैं। डेटा संग्रह के दौरान पूर्ण कोविड -19 प्रोटोकॉल प्रभावी थे।

  5. भारत में सरकार के तीन प्रमुख स्तर हैं। केंद्र में, उम्मीदवार संसद (लोकसभा), राज्य में विधान सभा (विधानसभा) के लिए और स्थानीय स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज संस्थानों या शहरों के लिए नगरपालिका संस्थानों के लिए चुने जाते हैं।

  6. बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना (बीआरएलपी), जिसे स्थानीय रूप से जीविका के रूप में जाना जाता है, ग्रामीण विकास विभाग के तहत एक स्वायत्त निकाय है, जिसका उद्देश्य सार्वजनिक/निजी सेवा प्रदाताओं के क्षमता-निर्माण में निवेश के माध्यम से ग्रामीण गरीबों का सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण करना, माइक्रोफाइनेंस और कृषि व्यवसाय क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा देना, और ग्रामीण गरीबों एवं उत्पादकों के संगठनों को सार्वजनिक / निजी क्षेत्र की एजेंसियों और वित्तीय संस्थानों की सेवाओं, ऋण और संपत्ति तक पहुंचने और उनसे बेहतर बातचीत करने में सक्षम बनाना है ।

लेखक परिचय :

  • अरिंदम बनर्जी नीति और विकास सलाहकार समूह (पीडीएजी), नई दिल्ली में भागीदार हैं। सयान बनर्जी युनिवर्सिटी औफ वर्जीनिया में डेमोक्रेसी इनिशिएटिव के हिस्से द डेलीबेरेटिव मीडिया लैब में पोस्टडॉक्टरल रिसर्च एसोसिएट हैं। चार्ल्स आर. हंकला जॉर्जिया स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। कुणाल सिंह नीति और विकास सलाहकार समूह (पीडीएजी), नई दिल्ली में प्रमुख सलाहकार हैं। अंजलि सैम नन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

 

ब्लॉग मूल रूप से यहां प्रकाशित हुआ था।

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